दिशोम गुरु शिबू सोरेन की काफी पहले की गई यह टिप्पणी आज भी उतनी ही प्रासंगिक है… “आखिर आदिवासी लोग कहाँ जायें?
दिशोम गुरु शिबू सोरेन की काफी पहले की गई यह टिप्पणी आज भी उतनी ही प्रासंगिक है…
“आखिर आदिवासी लोग कहाँ जायें?
आदिवासियों के साथ शुरू से ही शोषण की प्रवृत्ति तथा सौतेला व्यवहार चला रहा है, जिससे वे हताश-से हो गये हैं. शोषण के इस बुनियादी मुद्दे के परिप्रेक्ष्य में ही हम झारखंड राज्य बनाने की माँग कर रहे हैं. हमने बेसब्री से इंतजार किया कि कोई-न-कोई तो हमारा भला करेगा, लेकिन अब ऐसी कोई संभावना दिखाई नहीं देती.
हालांकि झारखंड राज्य की मांग पूरी हो जाने से यह कोई जरूरी नहीं कि हम अपनी आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी कर लेंगे. हमारा नेतृत्व भी दलाली कर सकता है. इसलिए हमारा आह्वान है कि अन्याय और शोषण के खिलाफ हमेशा संघर्ष करते रहना होगा.
आज आदिवासियों के शोषण का सबसे बड़ा कारण है ठेकेदारी और महाजनी प्रथा. ब्रिटिश शासनकाल में और आज भी इन लोगों का प्रशासन से मधुर संबंध है.
१९५७ में महाजनों ने मेरे पिता की हत्या की थी. उन्हें सच बात बोलने पर मार डाला गया था. इसका नतीजा यह हुआ कि हम लोग समय पर पढ़-लिख नहीं पाये. लेकिन महाजन को खत्म नहीं किया जा सकता. उसके तो और भी लोग है. व्यवस्था ही उनके साथ है. इसलिए उनके विरुद्ध हम लोग एकत्रित होने लगे. अब हमारा उद्देश्य है शोषण-मुक्त राज्य बनाने का. यह तो जनता की मांग है. जनतांत्रिक मांग है. गैर-आदिवासी और आदिवासी सभी इसके समर्थक हैं.
आदिवासी कोई जाति नहीं है. ये वे लोग हैं, जो आदिकाल से यहाँ रहते आये हैं. अतः इस देश पर सबसे पहला दावा तो हमारा बनता है. लेकिन आज हमीं सबसे पिछड़े हैं. छोटानागपुर-संथाल परगना भारत का सबसे समृद्ध इलाका है, फिर भी यहां के लोग भुखमरी और बेरोजगारी के शिकार हैं. इसका सबसे बड़ा कारण है जंगलों का बेतहाशा काटा जाना.
आदिवासी लोग सदियों से उन्हीं क्षेत्रों में बसते आये हैं, जहाँ जंगल बहु- तायत से मिलता है. जंगल में आदिवासियों के खाने के लिए कंदमूल, फलफूल वगैरह सभी थे. लेकिन सरकार इन्हें काट कर नकली जंगल लगा रही है. सागवान और यूकेलिप्टस के पेड़ लगाये जा रहे हैं, जिसका मुख्य उद्देश्य है शहरी अमीरों के लिए फर्नीचर की लकड़ी उपलब्ध हो. लेकिन हम तो फर्नीचर पर नहीं सोते. इसलिए इन पेड़ों के काटने के विरुद्ध अभियान भी आदिवासियों ने चला रखा है.
जंगलों में ठेकेदार गरीब आदिवासियों को एक-दो रुपये दे कर लकड़ी कटवा जाता है. फिर जब जमीन परती हो जाती है, तो वन विभाग कहता है कि यह सरकारी जमीन है. यहाँ से हटना होगा. आदिवासियों को घर-बार समेट कर दूसरी जगह जाना पड़ता है. वहाँ भी कुछ दिनों में वही स्थिति बन जाती है. आखिर आदिवासी लोग कहां जायें?
ऐसी स्थिति पैदा करने के बाद बिहार सरकार के सरकारी अधिकारी कहते हैं, “हमारे हुक्म हुक्म के बगैर यहाँ पत्ता भी नहीं हिल सकता.” आजाद देश में ऐसा कौन-सा कानून बना, पता नहीं. इस तरह प्रशासन की ओर से आदिवासियों को चुनौती दी जाती है. इसीलिए हमारा झगड़ा प्रशासनिक अधिकारियों से रहता है, न कि यहाँ रहनेवाले गैर-आदिवासियों से. दिक्कू और शिबू सोरेन संसद सदस्य आदिवासियों के बीच तनाव का वातावरण जानबूझ कर बनाया गया है.
सरकार आदिवासी क्षेत्रों में शिक्षा का प्रसार नहीं कर रही. आज हमारी सबसे बड़ी कमजोरी है अशिक्षा. इसी कारण हमारा शोषण हो रहा है. अशिक्षा को दूर करने के लिए हमने काफी रात्रि पाठशालाएँ खोली हैं। आदिवासी क्षेत्रों में कुछ लोग हैं, जो यह सोचते हैं कि यदि आदिवासी बच्चों ने स्कूल जाना शुरू किया, तो उनके घर काम कौन करेगा? शिक्षा के क्षेत्र में ईसाई मिशनरियों ने काफी काम किया. मैं स्वयं ईसाई घर्म नहीं मानता, लेकिन उनमें जो त्याग की भावना है उसकी सराहना करता हूँ.
गैर ईसाई आदिवासी और ईसाई आदिवासियों को लड़ाने की भी काफी कोशिश की जाती है, जिससे हममें फूट बनी रहे. लेकिन गरीबी का तो कोई घर्म नहीं होता. गरीब, गरीब हैं. इनको रोजी-रोटी चाहिए.
आदिवासियों की एक और बुराई है. हमने बिहार सरकार से कहा कि आदिवासी क्षेत्रों में शराब का ठेका नहीं दो. लेकिन हमारी बात नहीं मानी गयी. ठेकेदार शराब पिला कर उनका शोषण करते हैं. पश्चिम बंगाल में भी यही हाल है. सरकार ने आदिवासी क्षेत्रों में मार्क्सवादी कार्यकर्ताओं को शराब के खूब लाइसेंस दिये. ये लोग मी बांकुड़ा जिले में आदिवासियों का खूब शोषण कर रहे हैं.
अतः हमारा कहना यह है कि कोई भी सरकार रहे, हमारा कल्याण तब तक नहीं होगा, जब तक हम अपना शासन खुद नहीं चलायेंगे…”
-शिबू सोरेन,
*” पहली पीढ़ी मारी जाएगी,दूसरी पीढ़ी जेल जाएगी और तीसरी पीढ़ी राज करेगी” का नारा देकर आदिवासी सम्मान को जगाने वाले ढिशुम गुरु शीबू सोरेन जी को निर्वाण प्राप्त होने पर सादर आदरांजलि प्रस्तुत करते है।*